प्रदेश
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव: मध्य प्रदेश में कांग्रेस की हार के ये हैं, सबसे बड़े कारण, जानिए
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को एक बार फिर बीजेपी के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। राहुल गांधी की 'भारत जोड़ो यात्रा', जन आक्रोश रैलियां, कांग्रेस की 11 गारंटी और महिला सशक्तिकरण योजनाओं का कोई नतीजा नहीं निकला।
मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में एक बार फिर कांग्रेस को बीजेपी के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा। 18 साल से सत्ता पर काबिज बीजेपी को हराने में बार-बार असफलता का क्या कारण है? आइये जानते है-
- स्पष्टता और पहुंच का अभाव: कांग्रेस जनता के साथ प्रभावी ढंग से संवाद करने में विफल रही। कांग्रेस के मुकाबले मध्य प्रदेश के भविष्य को प्राथमिकता देने वाले कमलनाथ के बयान में उनके अपने रुख को लेकर भ्रम की स्थिति दिखी।
- महिला-केंद्रित योजनाएँ: शिवराज सिंह की लाडली बहना योजना के विपरीत, कांग्रेस के पास महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए कोई विशेष योजना नहीं थी। प्रियंका गांधी ने मध्य प्रदेश में रैलियां तो कीं, लेकिन जनता खासकर महिलाओं को आकर्षित करने में पूरी तरह नाकाम रहीं। खासकर महिलाओं के बीच प्रियंका गांधी की रैलियों का असर नहीं दिखा।
- आंतरिक कलह: वरिष्ठ नेताओं की आपसी कलह ने कांग्रेस को कमजोर कर दिया। मंच पर खुली असहमति ने फूट को दर्शाया, जिसका असर जमीनी स्तर के कार्यकर्ताओं पर पड़ा।
- प्रमुख हस्तियों की अनुपस्थिति: अरुण यादव, सुरेश पचौरी और दिग्विजय सिंह जैसे नेता निष्क्रिय रहे। सामूहिक प्रयास की कमी से अभियान प्रभावित हुआ। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की ओर से कमल नाथ अकेले लड़ते नजर आए।
- कमजोर संगठन: कांग्रेस के जमीनी स्तर के संगठन में जोश की कमी है। वे मतदाताओं तक अपना एजेंडा प्रभावी ढंग से नहीं पहुंचा सके। कुल मिलाकर कांग्रेस संगठन मतदाताओं तक अपनी बात पहुंचाने में सफल नहीं रहा।
- नेतृत्व में विश्वास की कमी: सबसे बड़े कारणों में एक कारण यह भी है कि कांग्रेस का नेतृत्व कमजोर दिखने लगा है. हालांकि भारत जोड़ा यात्रा से राहुल गांधी को एक मास लीडर (जन-नेता) के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की गई. वह यात्रा जहां-जहां से गुजरी, वहां-वहां लोग जुड़ते भी दिखे, मगर जब तक भीड़ वोटों में तब्दील न हो, तब तक किसी भी नेता का जन-नेता बन पाना मुश्किल है. कांग्रेस के भीतरी संगठनों में ही अपने नेतृत्व के प्रति विश्वास की कमी नजर आती है, जिसका लाभ सीधे तौर पर भाजपा को मिला है.
- गुटबाजी: इस बार मध्य प्रदेश और राजस्थान में कांग्रेस के अंदर ही बड़ी गुटबाजी देखने को मिली. राजस्थान में अशोक गहलोत और सचिन पायलट के गुटों में तकरार पहले दिन से ही उजागर थी. पूरे पांच सालों तक कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व इसे गड़बड़ी को ठीक करने में जुटा रहा. मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के भाजपा में जाने के बाद कई छोटे नेताओं ने भी बीजेपी का दामन थाम लिया. तब से वह खाली जगह भरी नहीं गई है।
- विवादास्पद बयान: पीएम मोदी के बारे में कांग्रेस की अपमानजनक टिप्पणी का भाजपा को अपने फायदे के लिए फायदा उठाना पड़ा।
- युवा सशक्तिकरण की कमी: युवा नेताओं को प्राथमिकता नहीं दी गई, यही कारण है कि ज्योतिरादित्य सिंधिया कांग्रेस से बाहर हो गए।
- कमलनाथ कार्यकर्ताओं को समय नहीं देते: विश्लेषकों का मानना है कि कमलनाथ नेता कम और किसी बड़ी कंपनी के मैनेजर ज्यादा लगते हैं. यहां तक कि राजनीतिक बैठकों में भी उनका व्यवहार कॉरपोरेट मीटिंग की तरह ही रहता था. उन्होंने अपने विधायकों और कार्यकर्ताओं से मिलने के लिए बहुत कम समय दिया. इससे कार्यकर्ताओं में अपने नेता के प्रति असंतोष बढ़ने लगा.
प्रत्येक पहलू ने कांग्रेस की हार में योगदान दिया, जो पार्टी के भीतर कई आंतरिक और रणनीतिक चुनौतियों को उजागर करता है। कांग्रेस के नेताओं ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टारगेट करने की विफल कोशिश की. हर बार भाषायी सीमा लांघी गई और भाजपा ने इसे अपने पक्ष में मोड़ने में कामयाबी हासिल कर ली. कांग्रेस नेता मल्लिकार्जुन खड़गे ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर विवादित बयान दिया था. कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा, “मोदी जी, झूठों के सरदार बन गए हैं.” प्रधानमंत्री मोदी को लेकर इस तरह की बयानबाजी होने से हर बार भाजपा को ही लाभ पहुंचा है